इस्त्राइल का तारा
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इस्त्राइल का तारा
तेरी उपस्थिति में मैं प्रभु, आतम में आनंद ही पाता,
जब जब है संताप जताता, तभी तेरी पुकार लगता। दिनभर तुम सांत्वना बनते, रात्रि में मैं गीत बनता,
तुम मेरी आशा और मुक्ति, तुम में मैं सब हूँ पाता॥
ओ जायम की फुल कुमारी। तुमने देखी दीप्ति मधुरतम,
इस्राइल पर जो नक्षत्र, देता प्रभा चिर उज्ज्वलतम,
तेरे ताने वितान में प्रिय, आके ये क्या मेरे प्रियतम ?
जरा बता दो किधर गए अब, झुंडों को लेकर सुंदरतम ?
रुणझुण रुणझुण गो-घटी-सी, मीठी उनकी अमृत वाणी,
मृत्यु शय्यापर कराहते निष्प्रभ भी सुनते है प्राणी।
लेबनान के देवदारु झुक, उनके सम्मुख होते पानी,
उनके सासों के परिमल से, वायु बनती सुगंधी की रानी॥
पुत-धर्म की निझरिणी से, उनके दोनों ओठ बने है,
सिक्त हुई करुणा वाटिका, उनके शब्द यों स्नेह-सने है।
उनकी करुणा पर अचंबित, मुक्ति के सच तान तने है,
इस प्रफुल्ल प्रकाश डूबें, मुख से जो आ रहे बने है।
उनके कृपा-कटाक्ष से सारे, स्वर्गदूत आनंद मनाते,
लाख लाख प्राणी वाणीहित, उसी और है कान लगाते।
जब जब वाणी फुट निकलती, देशकाल गुम्फित हो जाते,
अनन्तकाल तक ईश्वर के यश, ध्वनित प्रतिध्वनित हो जाते॥SC 102.3
वह आनंद जो स्वार्थ को लक्ष्य कर मांगा जायगा, और जिसका कर्तव्य से कुछ सबंध न रहेगा, असंतुलित आनंद है, क्षणिक है -- वह यथार्थ में विश्वास है। वह स्थायी नहीं, और आत्मा में प्रकाश तथा हर्ष नहीं लाता मरण दु:ख और एकाकीपन भरता है। किन्तु ईश्वर की सेवा में हर्ष और संतोष भरा रहता है। सच्चे इसाई कभी पथ से भटकते नहीं, उसे निरर्थक अनुताप और नैराश्य नहीं सताते। सच्चे ईसाई की तरह रह कर यदि हम इस जीवन में सुखी नहीं तो उस जीवन में अवश्य रहेंगे उसी की ओर आशा करना हमारा धर्म है॥SC 103.1
वहीँ ईसाई को योशु के समागम के हर्ष प्राप्त होंगे, उनके प्रेम का प्रकाश मिलेगा, उनकी उपस्थिति की अनन्त सांत्वना मिलेगी। जीवन के प्रत्येक कदम से हम यीशु के निकट पहुंच सकते है, उनके प्रेम का पक्का अनुभव प्राप्त कर सकते है और शांति के स्वर्गीय गृह की ओर एक पग आगे जा सकते है। अत: हमें अपने विश्वास तोड़ फेकना उचित नहीं ; इसके विपरीत हमें अपने दृढ़ निश्चय दृढ़तर करते जाना चाहिये। विश्वास और जो पक्का करते जाना चाहिये। “यहाँ यों तो यहोबा ने हमारी सहायता की है,” और वह हमारे अंतिम क्षण तक सहायता करेगा। १ शमुवेल ७:१२। उन किर्तिस्तंभो को देखिये, जिससे आप को याद हो जायेगा की उस प्रभुने हमारी सांत्वना और उद्धार के लिए क्या किया है, हमें शत्रु से बचने के लिए क्या किया है, ईश्वर के सारे करुणा और दया से भरे कार्य, जितनी बार उसने आंसू पोंछे है, जितनी पीडायें उसने हटायी है, जितनी चिंताओं से उन्होंने मुक्त किया है, जितने भय दूर किये है, जितनी आवश्यकतायें पूरी की है, जितने आशीर्वाद और वरदान उन्हों ने दिये है, हमें ये सारी बातें सदा याद रखनी चाहिये। हमें यह याद रखनी चाहिए कि हमारी जीवन-यात्रा उन्हों के कारण सफल होती चली जा रही है॥SC 103.2
भविष्य के जीवन में आनेवाली नई उलझनों के देखे बिना हम रह ही नहीं सकते। किंतु आगे कि और दृष्टी डालने के समय हम कर पीछे कि और भी देख ले तो अच्छा हो। तब विगत जीवन की झांकी ले आगत जीवन के लिए कह सकेंगे, “यहाँ लों तो यहोबा ने हमारी सहायता की है।” “और तू अपने जीवन भर चैन से रहें।” व्यवस्था ३३:२४। वह याद रखें कि जिस परीक्षा में आप लगाये जा रहे है वह आप की सामर्थ्य और शक्ति से अधिक कठिन न होगी। अतएव जहाँ भी हो हमें अपने कर्तव्य में पिल पड़ना चाहिये और सदा यह विश्वास रखना चाहिये कि चाहे जो भी हो आय, दु:ख और पीड़ा के अनुपात में शक्ति और सामर्थ्य हमें दी जायगी॥SC 104.1
और धीरे धीरे स्वर्ग के फाटक ईश्वर के सन्तने के प्रवेश के लिए खुल जावेगे और उस अतुल भव्य सम्राट के मुख के आशीर्वचन सुमधुर संगीत की तरह मनुष्य-पुत्रो के कर्णा-कुहरों में प्रवेश करेंगे - “हे मेरे पिता के धन्य लोगो आओ उस राज्य के अधिकारी हो जाओ जो जगत के आदि से तुम्हारे लिए तैयार किया हुआ है।” मति २५:३४॥SC 104.2
तब उध्दार प्राणी उस गृह में स्वागत किये जावेगे जिसे यीशु उनके ही लिये बना रहा है। वहाँ उनके मित्र संसारी मित्रों की तरह पापी, झूठे, मूर्तिपूजक अपवित्र और नास्तिक न होंगे। वे लोग इन सबों के साथ रहेंगे जिन्होंने शैतान को हराया है, ईश्वरीय अनुग्रह के द्वारा सदृढ़ और पवित्र चरित्र प्राप्त किया है। यीशु के लिहू के द्वारा इन लोगों की प्रत्येक पापपूर्ण प्रवृत्ति, प्रत्येक दुर्बलता, और अपूर्णता जिससे उन्हें इस लोक में संताप मिल रहा था, दूर हो गया है और यीशु की महिमा के अप्रतिम सौंदर्य एवं प्रभा ने इन्हें इतना उज्जवल और चमत्कृत बना दिया है की ये सूर्य से भी अधिक तेजस्वी हैं। इस बाह्य उज्ज्वलता से भी अधिक नैतिक सौंदर्य और चरित्र की भव्यता उनके शारीर से फुट निकल रही है। उस धवल सिंहासन के पास वे कीर्ति की तरह विमल और धर्म की तरह पवित्र खड़े है, और स्वर्गदूतो की तरह प्रतिष्टा और सम्मान का उपभोग कर रहे हैं॥SC 104.3
मनुष्य को जब ऐसा बहुमूल्य उत्तरदायित्व प्राप्त होगा तो वह “अपने प्राण के बदले क्या देगा।” मती १६:२६। वह दिन हो सकता है किंतु फिर भी उसके पास वह ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा रहेगी जो वह इस लोक से कभी प्राप्त न कर सकता। मुक्त हुए और पाप से धुले प्राणी अपनी सारी कल्याणकारी शक्तियों को ईश्वर की सेवा में अर्पित कर देने पर जैसे बहुमूल्य हो उठते है, वैसी बहुमूल्य और कौन सी वस्तु है? कोई भी नहीं। और स्वर्ग में जब एक प्राणी भी मुक्त होकर ईश्वर और स्वर्ग दूतों के बीच आ जाता है, यह आनंद पवित्र विजय के उपलक्ष में सुमधुर गीतों द्वारा व्यक्त होता है॥SC 105.1